अपराध क्यों
समाज जिसमें व्यक्ति रहता है, समाज कहलाता है। समाज में नियम और कानून समाज व्यवस्था को चलाने के लिये अलग-अलग बनाये जाते है। बने हुए सामाजिक नियमों को तोडने को अपराध की श्रेणी में गिना जाता है। जिस समय से समाज बना है, उसी समय से उसके आदेशों के विरुद्ध काम करनेवाल भी पैदा हो गए है और जब तक मनुष्य प्रवृति ही न बदल जाए, ऐसे व्यक्ति बराबर होते रहेंगे।
ध्यान रहे यह समस्या कुछ घटनाओं तक सीमित नहीं है और न ही जघन्य अपराधों तक जोकि अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं बल्कि लड़ाकू-झगड़ालू दूसरों को तंग करना, बुलिंग आदि की शिकायतें आए दिन स्कूल परिसरों की सरदर्दी बनती जा रही हैं। हाल में दिल्ली में प्रशासनिक स्तर पर जिला विद्यालय निरीक्षक विभाग ने स्कूलों में गुस्सैल और झगड़ालू बच्चों की सूचि तैयार करने को भी कहा ताकि उनकी काउंसलिंग की जा सके तथा विशेषज्ञों की राय ली जा सके।
अब कुछ बिगड़े हुए छात्रों को 6वीं और 7वीं के बाद क्लास में काबू करना शिक्षकों के लिए भारी चुनौतीपूर्ण काम बन गया है। स्कूलों में गैंग की तरह ऐसे बच्चों का समूह दूसरे बच्चों पर दबाव बनाते हैं। कुछ माता पिता को भी अपनी संतान को स्नेह प्यार करने का मतलब उनकी हर मांग को पूरी करना रह जाता है। वे अपने बच्चों में एक जिम्मेदार नागरिक की मानसिकता नहीं बना पाते जो फिर उन पर ही भारी पड़ता है क्योंकि ऐसे बच्चे बड़े होकर अच्छे इन्सान भी तो नहीं बनते। अगर ऐसे बच्चों को कोई शिक्षक नैतिक शिक्षा की तरफ मोड़ने की कोशिश करता है तो उसे दिक्कत का सामना करना पड़ता है।
यानी एक उम्र के बाद बच्चे शिक्षकों की बात मानना बंद कर दे रहे हैं और इसकी प्रवृत्ति बढ़ रही है। बच्चों पर बाहरी प्रभावों के संदर्भ में सोशल मीडिया के असर पर काफी चर्चा होती रही है, लेकिन इस से बच्चों को बचा पाना या खुद बच पाना अब लगभग नामुमकिन सा लगने लगा है। बच्चों में आक्रामकता बढ़ने, गुस्सा भड़कने, बात बात पर हिंसक हो जाना या नाराज होकर घर से भाग जाना, अपनी जान जोखिम में डाल लेना आदि व्यवहार का कारण तलाशना इतना मुश्किल भी नहीं है।
यदि हम समाज में इस मुद्दे पर पहल और हस्तक्षेप नहीं करते हैं कोई भी घर बच्चों को दुरुस्त नहीं रख पाएगा। बच्चों की नियमित निगरानी होनी चाहिए।
ध्यान रहे यह समस्या कुछ घटनाओं तक सीमित नहीं है और न ही जघन्य अपराधों तक जोकि अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं बल्कि लड़ाकू-झगड़ालू दूसरों को तंग करना, बुलिंग आदि की शिकायतें आए दिन स्कूल परिसरों की सरदर्दी बनती जा रही हैं। हाल में दिल्ली में प्रशासनिक स्तर पर जिला विद्यालय निरीक्षक विभाग ने स्कूलों में गुस्सैल और झगड़ालू बच्चों की सूचि तैयार करने को भी कहा ताकि उनकी काउंसलिंग की जा सके तथा विशेषज्ञों की राय ली जा सके।
अब कुछ बिगड़े हुए छात्रों को 6वीं और 7वीं के बाद क्लास में काबू करना शिक्षकों के लिए भारी चुनौतीपूर्ण काम बन गया है। स्कूलों में गैंग की तरह ऐसे बच्चों का समूह दूसरे बच्चों पर दबाव बनाते हैं। कुछ माता पिता को भी अपनी संतान को स्नेह प्यार करने का मतलब उनकी हर मांग को पूरी करना रह जाता है। वे अपने बच्चों में एक जिम्मेदार नागरिक की मानसिकता नहीं बना पाते जो फिर उन पर ही भारी पड़ता है क्योंकि ऐसे बच्चे बड़े होकर अच्छे इन्सान भी तो नहीं बनते। अगर ऐसे बच्चों को कोई शिक्षक नैतिक शिक्षा की तरफ मोड़ने की कोशिश करता है तो उसे दिक्कत का सामना करना पड़ता है।
यानी एक उम्र के बाद बच्चे शिक्षकों की बात मानना बंद कर दे रहे हैं और इसकी प्रवृत्ति बढ़ रही है। बच्चों पर बाहरी प्रभावों के संदर्भ में सोशल मीडिया के असर पर काफी चर्चा होती रही है, लेकिन इस से बच्चों को बचा पाना या खुद बच पाना अब लगभग नामुमकिन सा लगने लगा है। बच्चों में आक्रामकता बढ़ने, गुस्सा भड़कने, बात बात पर हिंसक हो जाना या नाराज होकर घर से भाग जाना, अपनी जान जोखिम में डाल लेना आदि व्यवहार का कारण तलाशना इतना मुश्किल भी नहीं है।
यदि हम समाज में इस मुद्दे पर पहल और हस्तक्षेप नहीं करते हैं कोई भी घर बच्चों को दुरुस्त नहीं रख पाएगा। बच्चों की नियमित निगरानी होनी चाहिए।