धर्म और अधर्म

इंसान में धर्म और अधर्म दोनों ही गुण होते हैं। कभी धर्म बढ़ता है और कभी अधर्म, कभी हम धार्मिक बर्ताव करते हैं और कभी अधार्मिक। लेकिन जब भी इंसान के अंदर अधर्म का भाव आता है, तब उसके मन में उस अधर्म को न करने की एक लहर भी ज़रूर उठती है। उस लहर को वो सुने या ना सुने या उस पर भले ही वह ध्यान दे या न दे, अधर्म करने पर दिल बार-बार यह ज़रूर कहता है कि जो कर रहे हो, वह गलत है। ये एक मन की आवाज होती है जो धर्म जरूर देता है । 

और ये भी नहीं है कि जब कुछ बड़ा अधर्म करेंगे, तभी अंदर की आवाज़ आएगी, यह तो किसी का कुछ भी गलत करने पर भी आएगी। ये आवाज़ हर वक़्त आएगी, जब भी आप कोई गलत काम करेंगे। जाहिर है, लोग इसी आवाज़ को नज़रअंदाज़ करके अधर्म करते हैं।

ये अंदर की आवाज़ कुछ और नहीं, बल्कि हमारी चेतना में बैठे भगवान कृष्ण की प्रेरणा है, जो हमें अधर्म न करने की सलाह देती रहती है। पर उस चेतना को सुनता कौन है जो हो रहा है सही ही हो रहा है यही सोच धर्म और अधर्म के बीच की दूरी पैदा करता है। जो इससे पार पा गया वो धार्मिक और जो नही पार पाया वो अधार्मिक। 

खैर आज के जमाने मे इतना कौन सोचता है यही बोल कर सब आगे निकल जाते है

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