समझना आसान नहीं है यह लोकतंत्र का संदेह अलंकार जो है
हमारे बरामदे में विराजमान होने के बाद आता है। कभी-कभी जब दरवाजा खटखटाता है तो हम उसके खटखटाने के तरीके से पहचान लेते हैं। कोई अंजान ठकठक होती है तो आदमी स्वाभाविक रूप से यही प्रश्न करता है- कौन है ? आज दरवाजे के खटखटाने से अधिक मुखर था प्रश्न- मैं कौन हूं ? आज के ज़माने में आदमी रोज मिलने वाले तक को पूरी तरह से नहीं पहचान पाता तो दरवाजे के पीछे छुपी शै को कैसे पहचाने ? जब आज तक रामविलास पासवान, जया प्रदा, अजित सिंह, अमर सिंह, हिमाचल वाले सुखराम आदि खुद को नहीं पहचान पाए कि उनका खुद का राजनीतिक दर्शन क्या है और उनकी वास्तविक राजनीतिक पार्टी कौन सी है ? कौन सा घर असली है जहां वापसी के बाद फिर आवागमन का चक्कर नहीं रहेगा। हमने सूफ़ी दर्शन वाला उत्तर दिया- जो अन्दर है, वही बाहर है। तोताराम अंदर आते हुए बोला- इस ‘मैं भी चौकीदार’ वाली मुहिम जैसे उत्तर से पार नहीं पड़ेगी। फिर भी तेरा उत्तर आंशिक रूप से सही है। बाहर भी सत्तर पार का टिकट वंचित निर्देशक मंडल का एक सदस्य और अंदर भी सत्तर पार का टिकट वंचित निर्देश मंडल का सदस्य। लेकिन मेरे कन्फ्यूजन को समझे बिना तू मेरे प्रश्न के साथ न्याय न...